Saturday 5 June 2021

ननम पोनू : लोक-कंठाहार को संग्रहनामे का शक्ल देती मोर्जुम लोयी

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भाषा के अनुशासक हैं-आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। उनका कवित्व सहज और प्राश्निक की भाँति है। वे कहते हैं-‘सारी प्रजा निपढ़ दीन दुखी जहाँ है, कर्तव्य क्या न कुछ भी तुझको वहाँ है।’’ इस ‘वहाँ’ को मोर्जुम लोयी अरुणाचल में सही करती दिखती हैं। वह अपनी जनता की चेतना को स्थूल-सूक्ष्म ढंग से पकड़ती है। वह अपनी पुरखों की भाषा को अरजती ही नहीं है, बल्कि श्रमसाध्य ढंग से उस लोक-आख्यान को रूपाकार भी करती हैं। बकौल मोर्जुम लोयी-‘ये गीत आमतौर पर समाज, संस्कृति व स्त्री पर केन्द्रित होती हैं। उनके रहन-सहन, पहनावे, दिनचर्या आदि इन लोकगीतों में निहित रहते हैं। अपनी कोई लिपि न होने के कारण यह सिर्फ लोगों के कंठों और उनके हृदय में विद्यमान हैं। जनता अपने सरल हृदय के साथ लोकगीतों को गाती हैं। लोकगीतों में लोग अपनी भावनाओं को मधुर वाणियों में प्रकट करते हैं। ये सम्पूर्ण समाज की अमूल्य धरोहर है।’’
अरुणाचली धरा की इस धरोहर को मोर्जुम लोयी बचाने की जुगत में जुटी दिखती हैं। उनकी सद्यः प्रकाशित गालो जनजाति के लोकगीतों का संग्रह ‘ननम पोनू’ इसका गवाह है। पेशे से प्राध्यापिका मोर्जुम लोयी को पता है कि आने वाली पीढ़ी के लिए इसके क्या मायने और महत्त्व हो सकते हैं। कहना न होगा कि लोक-साहित्य का भारतीय लोकवृत्त किसी ‘पट्टी’ विशेष तक नहीं सीमित है। यथा: उत्तरपट्टी, दक्षिणपट्टी, हिन्दी पट्टी आदि। पूर्वोत्तर का जनजातीयबहुल समाज भाषा-बोली के स्तर पर समृद्ध एवं समुन्नत है। यहाँ लोकाश्रयी धाराएँ गगनउवाची नहीं, बल्कि लोक-मन की रंगरेज मालूम देती हैं। उनके कहन में अल्हड़ भावनाएँ और गाढ़ी रंगत की संवेदनाएँ दिखाई देती हैं। लोकगीत अपनी जनजातीय चेतना के वास्तविक संवाहक है जिनकी गूँज-अनुगूँज अरुणाचल प्रदेश की गालो जनजाति में स्पष्ट लक्षित की जा सकती हैं। ‘योई बाबो’ की अंतिम कुछ पंक्तियाँ आपके समक्ष रखना उचित होगा-
‘‘हीरअ गो इरमेन लाजुके, ननम सीरे गो इरमेन लाजुके, योई बाबोआ होई।
मेबाम गो बाम्मेन लाजुके, पोनु मोबाम गो बाम्मेन लाजुके, योई बाबोआ होई।
टाजेना ईतो लाके, आजेन गाद्दा ईतो लाके, योई बाबोआ होई।।’’
गालो लोक-जगत का यह मनोरंजन गीत अपने भावार्थ में जिस मर्म को उद्घाटित करता है, वह जड़बुद्धि या जड़मति के लिए उत्तम संदेशा है। मोर्जुम लोयी शब्दार्थ-सम्बन्ध के साथ कहती हैं-‘‘इस जड़बुद्धि में प्रेम की मीठी वाणियों से ऊर्जा का संचार कर देती हूँ। ताकि हम मिलकर समाज में बदलाव ला सकें, इसकी जड़ता को खत्म कर एक नवनिर्माण कर सकें। चलो मिलकर मन के सोए हुए संगीत को जागृत करें। संगीत के तारों को छेड़कर उससे गीत एक बनाएँ। ताकि इस सोए हुए संसार को, समाज में फैली हुई अराजकता को, भेद-भाव सबको दूर कर सकें। चलो, मिलकर संगीत के सुरों से माहौल को संगीतमय बना दें।’’
‘ननम पोनू’ में कहा गया है कि यह दुनिया एक समय वीरान थी। कोई गति, हिलडुल, हलचल नहीं थी। इस नीरसता को तोड़ने का प्रयत्न किया गया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। कंठ से संगीत नहीं फूटा। पशु, पक्षी, जीव, जंतु भी इस नीरव दुनिया में कोई थिरकन पैदा नहीं कर सके। ऐसे में एक स्त्री को अपनी पारम्परिक वेषभूषा और आभूषणों संग गाने को कहा गया। उस स्त्री के कंठ से गीत झंकृत हो लिए और पूरा वातावरण संगीतमय हो गया। इस दुनिया को खुशहाल और जीवंत बनाने में स्त्री की भूमिका प्राथमिक रही है, यह पुष्टि इस लोकगीत से हो जाती है जो ‘ओयो हयिया’ शीर्षक से संकलित है।
निर्मल कुमार बोस द्वारा लिखित तथा श्याम परमार द्वारा अनूदित पुस्तक का नाम है-‘भारतीय आदिवासी जीवन’। इसका उल्लेख इस कारण कि उसमें आदिवासी-जन के विवाह-प्रकृति के बारे में लिखा गया है, ‘‘परिवार विवाह के द्वारा बनता है। साथी तलाश करने के बारे में प्रत्येक आदिवासी जाति समुदाय के अपने स्वतन्त्र नियम होते हैं। किससे विवाह करना चाहिए या किससे नहीं; किसे महत्त्व दिया जाए या किसके सम्बन्ध में उपेक्षा बरती जाए, उसके लिए भी नियम होते हैं। ये नियम कई रूपों में एक आदिवासी जाति (क्लान) के दूसरी आदिवासी जनजाति (क्लान) से अलग-अलग होते हैं। उनकी विचित्रताओं का वर्णन करने के लिए अनेक विशिष्ट और अनोखे उदाहरण उपलब्ध हैं।’’
पंक्तिलेखक का स्वयं का अनुभव भी इस बात की तसदीक करता है कि यहाँ शादी ‘टैबू’ से अधिक जीवन-निर्वाह का संकल्प है; सामूहिकता से प्रमाणित विधि-विधान हैं। इस बारे में मोर्जुम लोयी द्वारा शामिल शादी का लोकगीत ‘न्यीदा काबेन’ सटीक उदाहरण है। इस गीत में मुख्यतया वधू की ओर से गानेवाली निबो होती हैं जो एक तरह से इन गीतों की जानकार या कहें विशेषज्ञ होती हैं। वह वधू को नई जीवन के लिए शुभकामनाएँ देती हैं तथा उनके जीवन में आने वाले हर किस्म के संकट, अनहोनी अथवा विघ्न-बाधाओं को दूर करने की प्रार्थना करती हैं। उनके अच्छे भविष्य की कामना के साथ भलीभाँति अपनी जिन्दगी में फलने-फूलने का आशीर्वाद भी दिया जाता है। बेटी एक परायी धन होती है, यह बात गालो जनजाति में भी मान्य है जिसे वह एक मिथकीय उदाहरण के साथ रखती हैं। वे बताती हैं कि आन्यी-कारपु-कारलु नाम की बहनों ने भी कोशिश की थी कि वे बेटा बनें; पर लाख कोशिशों के बावजूद यह संभव न हो सका।
ये गीत इतनी कारुणिक होती हैं कि कई बार सुनने वाले श्रेाता रो पड़ते हैं। लोकगीत सीधे मर्म को छूती हैं और भीतर तक गहरे उतर जाती हैं। जिन कंठों सेे इन गीतों को गाया जाता है, वे भी काफी भाव-विह्वल हो उठती हैं। न्यीदा यानी गालो जनजाति की शादी में मान्यता है कि वर-वधू कोपु अर्थात एक्काम के पत्ते की कोंपलों की तरह होते हैं या कि पये पत्ते की तरह। शादी के वक्त दूर के जंगलों से जाकर कोपु लिया जाता है, दुल्हा और दुल्हन अपने हाथों से कोपु का आदान-प्रदान करते हैं। ये रीत आगे बढ़ने की संभावनाओं को व्यक्त करती हैं।
यहाँ बीच से कोई पंक्ति उठाकर देना, पंक्तिलेखक के लिए मुश्किल बात है। इसलिए मोर्जुम लोयी ने जो संग-साथ भावार्थ बताएँ हैं, उसी का उल्लेख करना सही होगा। यह इसलिए भी जरूरी है ताकि आप गालो लोकगीत के मर्म को समझ सकें तो आपका प्रयास निश्चय ही इन लोकगीतों तक पहुँचने का होगा।
‘ननम पोनू’ में लोकगीतों की बहुलता ही नहीं है, बल्कि विविधता भी अनेकानेक हैं। इसमें गालो जनजाति के जल-आह्वान सम्बन्धी इतिहास से जुड़ी एक लोकगीत संकलित है। जल की देवी एक मिथकीय स्त्री है जिनकी सुमिरन में यह कहकर बुलावा भेजा गया कि हे देवी, आपके बिना यह संसार सूना है। जमीन बंजर हो गई है। मनुष्य, पशु, पक्षी सब प्यासे हैं। हमें जीवनदान देने के लिए अपना दर्शन करा दो। आगे का प्रसंग रोचक है और इस दुनिया के हरे-भरे यानी हरीतिमायुक्त होने का मुख्य कारण भी।
इसी तरह स्त्री विषयक ‘आन्नअ यो आन्ना’ गीत हैं। ‘आनअ ग आजुमा सिरि रम्यो’ शीर्षक से बिछुड़ गई बेटी के लिए माँ का क्रंदन-गीत है। बेटियों के लिए उपदेशात्मक गीत है। दुल्हन के आगमन पर गाये जाने वाली खुशियों के इजहार का लोकगीत है। शिशु के देखभाल के एवज में की जाने वाल जायज माँग पर आधारित लोकगीत है। मोपिन और मिथुन की बलि को लेकर गाए जाने वाले गीत इस संग्रह में शामिल हैं, तो एक प्यारी लोरी भी इसमें संकलित है। लोरी की दो पंक्तियाँ यहाँ देखी जा सकती हैं-
‘‘अक्कुम अम...ताकुअ अम..., गोक्कुअ अम...,
अक्कअ रअ अम..., गोक्कअ रअ अम..., ताकअ रअ अम...।’
गालो लोकगीत में दिलचस्प यह कि टिड्डी और कौए के प्रसंग में भी लोकगीत हैं। इसी तरह जायी बोनअ की मशहूर लोककथा इस संग्रह की उपलब्धि है। तोप गोन और रहस्यमय शिला की कथा भी इस संग्रह में शामिल किया जाना इस संग्रह की उपादेयता को बढ़ा देता है। स्त्री-पुरुष प्रेम में एक स्त्री के पुरुष-विशेष से आकृष्ट होने के वृत्तांत से जुड़ी लोकगीत भी ‘ननम पोनू’ संग्रह में अपना स्थान रखते हैं।
‘ननम पोनू’ की एक बड़ी उपलब्धि गालो जनजाति के विस्थापन को सम्बोधित लोकगीत का इस संग्रह में होना है। इस लोकगीत का शीर्षक है-‘तोनअ जाजिन’। यहाँ इस ऐतिहासिक लोकगीत को मोर्जुम लोयी ने अपने संग्रह में हिस्सा देकर पुरखों के प्रति अपने आभार को प्रकट किया है। अरुणाचली लोक-साहित्य में जिन पुरखों का उल्लेख मिलता है। आबोतानी की जिस संस्कृति के वे उत्तराधिकारी हैं उसका उल्लेख भारत के किसी लिखित साहित्य में न मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे में ये ऐतिहासिक लोकगीत संकर होती दुनिया में अपने मूल को बचाये रखने की रोशनाई है। इस नवीन काव्य-संग्रह में बेहद संक्षेप में लेखिका ने सारगर्भित टिप्पणी देकर हिंदी-संसार के पाठकों को अपना बना लिया है। वह सहज-सरल ढंग से जनजातीय लोकगीतों की जिन विशेषताओं को उकेरती, उभारती तथा यथासंभव उसका शब्दार्थ-भावार्थ प्रस्तुत करती जाती हैं; वह उनकी लेखकीय जवाबदेही को दर्शाता है। सबसे अंत में उन्होंने लोकगीतों में प्रयुक्त शब्दावलियों का शब्दार्थ एक साथ दिया है जो गागर में सागर भरने वाली हैं।
जनजातीय अस्मिता अकादमिकपोसू निगाहबानी और फौरी करतब से नहीं बच सकती है। भारत के अधिसंख्य लोग गालो जनजाति के नाम से ही परिचित नहीं है, वे दोगीन-आयिन समयकाल के बारे में कुछ जानते होंगे; यह सोचना भी फिजूल है। तब भी मोर्जुम लोयी की करीब सौ पृष्ठों की यह पुस्तक ‘ननम पोनू’ भारतीय खोजी अध्येताओं, लोक-संग्राहक स्वाभाव के सुधिजनों, अकादमिक शोधार्थियों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है।
अरुणाचल प्रदेश के साहित्यप्रेमी तबके और लोक-साहित्य में जीने वाले लोगों के लिए भी यह पुस्तक बेहद जरूरी पाठ है। आशा है, देश भर की जैसी सकारात्मक प्रतिक्रिया मोर्जुम लोयी के आत्मकथात्मक उपन्यास ‘मिनाम’ को मिला; वैसी ही प्रेम और शुभेच्छाएँ आपसब पाठक, सुधिजन इस संग्रह पर भी वारेंगे, यह अपेक्षा होना स्वाभाविक है।
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(Credit : ICSSR-IMPRESS)

Thursday 30 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 24

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

कालक्रम-गुण आधारित टेबुलाइजेशन :




एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 23

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण को इस बात पर ध्यान देना चाहिए और इस बारे में संवेदनशील ढंग से सोचना चाहिए कि आँख बंद कर लेने से वास्तविकता नहीं बदल जाती है और न ही पन्ने पलटना बंद कर देने से दारुण कथा का अंत हो जाता है। उसके लिए संघर्ष ही एकमात्र रास्ता है, परम लक्ष्य है। बुद्ध से लेकर ज्योतिबा फुले, विवेकानंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, संविधान-निर्माता भीमराव आम्बेडकर तक ने कहा है-अपने हक की तलाश में खुद निकलो और जो अब तुक तुम जैसों को हासिल नहीं हुआ है उसे सांविधानिक तौर-तरीकों से प्राप्त करो। राह के दिग्दशी मनुष्यों ने खुद चेष्टा करने की बात कही है। अगर मंत्र चलन में है, तो मंत्र जानों; जो भाषा कारगर है उसे सीखों; साथ ही वे सब करें और उतनी ही मेहनत से करें जो दूसरे अपनी क्षमता और बुद्धि से कर रहे हैं। अन्यथा किसी भी तरीके की अतिरिक्त सुविधा हमें औसत-बुद्धि ही साबित करेगी और हम अंततः उपहास का कारण बनेंगे। इसलिए सरकारी सुविधाओं की जगह अपना आविष्कार स्वयं करना है और दुर्गम या कहें अभेद्य कहे जाने वाले लक्ष्य को प्राप्त करना है। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवि मन्नूलाल द्विवेदी ‘शील’ अपनी कविता ‘राह हारी मैं न हारा !’ (सन् 1945) में जो कहते हैं वह देश की सर्वहारा जनता के लिए ओज और साहस की प्राणवायु है :

 “राह हारी मैं न हारा !

थक गए पथ धूल के —
उड़ते हुए रज-कण घनेरे ।
पर न अब तक मिट सके हैं,
वायु में पदचिह्न मेरे ।

जो प्रकृति के जन्म ही से —
ले चुके गति का सहारा !
राह हारी मैं न हारा !

स्वप्न मग्ना रात्रि सोई,
दिवस संध्या के किनारे
थक गए वन-विहग, मृग, तरु —
थके सूरज-चाँद-तारे ।

पर न अब तक थका मेरे —
लक्ष्य का ध्रुव-ध्येय तारा ।

राह हारी मैं न हारा !”

अक्सर कठिन घड़ी ईमानदार लोगों के लिए व्रजपात की माफिक होती है। आप अपने हक-हकूक और अधिकार से वंचित रह जाते हैं; जबकि दूसरे आप पर राज करने लगते हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में एक ही मुहावरा चमकता है-‘मरता क्या न करता’। प्रगतिवादी कवियों ने देखा कि अमीर दिन-ब-दिन अमीर होते जा रहे हैं और ब्रिटिश हुकूमत भी उन्हीं की सुनती है जबकि देश की करोड़ो-करोड़ जनता तमाम तरह की व्याधियों और समाजजनित रोगों से त्रस्त है। उनकी पीड़ा की कहीं कोई सुनवाई नहीं; न कोई देखभाल और न ही कोई पुरसाहाल। ऐसे में साहित्य की प्रगतिवादी काव्यधारा ने इन असहायों और बेसहारों के लिए ‘मूक आवाज’ का पर्याय बनने की सोचा और आगे बढ़े। इस दौर के अधिसंख्य कवि स्वप्नजीवी नहीं थे और न ही ख्याली पुलाव पकाने वाले गप्पी क्रांतिकारी। ऐसे कवियों की जड़ें भारतीय हैं, लेकिन चिन्तन का दायरा अन्तरराष्ट्रीय हैं। जनकवि नागार्जुन की कविता जो ‘हिंदी-कविता.काॅम’ पर ‘जनकवि का प्रणाम’ शीर्षक से संकलित है के कहन की मुहावरेदानी देखते बनती है-

“भारतीय जनकवि का प्रणाम

गोर्की मखीम!
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!
घुल चुकी है तुम्हारी आशीष
एशियाई माहौल में
दहक उठा है तभी तो इस तरह वियतनाम ।
अग्रज, तुम्हारी सौवीं वर्षगांठ पर
करता है भारतीय जनकवि तुमको प्रणाम ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!

गोर्की मखीम!
दर-असल'सर्वहारा-गल्प' का
तुम्हीं से हुआ था श्रीगणेश
निकला था वह आदि-काव्य
तुम्हारी ही लेखनी की नोंक से
जुझारू श्रमिकों के अभियान का...
देखे उसी बुढ़िया ने पहले-पहल
अपने आस-पास, नई पीढी के अन्दर
विश्व क्रान्ति,विश्व शान्ति, विश्व कल्याण ।
'मां' की प्रतिमा में तुम्ही ने तो भरे थे प्राण ।

गोर्की मखीम!
विपक्षों के लेखे कुलिश-कठोर, भीम
श्रमशील जागरूक जग के पक्षधर असीम!

गोर्की मखीम!”

आज के सन्दर्भों में भी ये कविताएँ बिल्कुल मौजूं मालूम देती हैं। कवि निरर्थक नहीं होता है, क्योंकि उसके पाठ का अंतःपाठ और अन्तर्पाठ सदैव चलते रहते हैं। इस तरीके से हम देख पाते हैं कि प्रगतिवादी कवियों ने अपने देशकाल व परिवेश की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों की न सिर्फ संवेदनशील पड़ताल की, अपितु भारत की उस जनता के पक्ष में आवाज बुलंद की जो वास्तव में धरतीपुत्र थीं और उनका पेशा था-खेती-किसानी, मजदूरी, कास्तकारी, हस्तशिल्प व कुटीर उद्योग इत्यादि। जो सदियों से शोषित-पीड़ित और समाज की धारा से बहिष्कृत थी, हाशिए पर थी। जबकि एक दूसरी जमात थी-चंद अमीरजांदों की जो सामंत और अंग्रेज के सिपाहसालार थे। दरअसल एक ही समय में कुछ लोग बिना कुछ किए सफल हो जाते हैं तो उसके पीछे स्वार्थलोलुप प्रवृत्तियाँ और अनैतिक कार्यकलाप मुख्य वजहें होती हैं। बेईमान लामबन्दी जबर्दस्त तरीके से करते हैं। लूट की ज्यामिति में वे अपनी स्थिति चतुर्भुज में उस कोने की तरह सुरक्षित रखते हैं जो प्रकृतितः ‘राइट एंग्ल’  होता है। भारत पर बेईमान और भ्रष्ट सत्ता इसी मंशा से राज करती आई है। सरकारें जनहित का करतब बहुत कर ती है; उवाचती भी जोर-शोर से है; लेकिन जन-साधारण की यथास्थिति में किंचित ही बदलाव हो पाता है। बाकी अभिजात्य वर्ग, नौकरशाह, नेता-मंत्री हुक्मरां और उनके कारिंदे खा-चिबा जाते हैं। ऐसे में जनता के प्रतिरोध का आँसू रामाधारी सिंह दिनकर जैसे प्रगतिशील कवि के कलम के बरास्ते पूरे ओज-नाद, शोर्य-साहस का हुंकार करती हुई जगजाहिर होती हैं- 

“सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

जनता? हां, लंबी – बड़ी जीभ की वही कसम,
‘जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।‘
‘सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?’
है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?’

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।“

लेकिन यह आने वाली जनता चेतस और समझदार होनी चाहिए। उसे अपने मंजिल की पहचान करते हुए आगे बढ़ने आता हो। सनद रहे कि सत्तासीन होने की आग्रही जनता सिर्फ वह अपनी ही महत्त्वाकांक्षा में नधायी रहने वाली न हो। फिर प्रश्न है कि जनता की चित्तवृत्ति आखिर कैसी हो, तो इसके लिए सामवेद की पंक्ति मार्गदर्शन करती मालूम देती है-

‘विदा मघवन् विदा गातुमनुशंसिषों दिशः।
शिक्षा शचीनां पते पूर्वीणां पुरूवसो।।’

विद्वान मनीषी इसकी व्याख्या में जोड़ते हैं-‘‘लक्ष्य निर्धारण केवल मन की भावना या इच्छा से भी नहीं करना चाहिए। अपनी ‘क्षमता’ को अपने आन्तरिक ‘स्वभाव’ को जान-समझकर ही ‘गंतव्य’ निश्चित करना होगा। हमारी अपनी चेतना, हमारा मन आदिशक्तियों का स्वामी है, उसकी बात सुने के लिए भीतर लौटना होगा अर्थात् चिन्तन-मनन व ध्यान करना होगा, तब मघवन् यानी उदाहरृदय देव हमें सही दिश-निर्देश देकर गंतव्य तक पहुँचने के साधन व शक्ति भी देगा।’’

Monday 27 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 22

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

विद्यार्थीगण ध्यान दें कि व्यावहारिक बदलाव किसी भी किस्म के परिवर्तनकामी विचार से ज्यादा स्थायी और प्रभावी हुआ करती हैं। विचार बदलाव के सूत्र हो सकते हैं, लेकिन बुनियादी स्रोत उन्हें नहीं माना जा सकता है। प्रगतिवादी काव्यधारा के कवियों ने इस हकीकत को भली-भाँति बूझ लिया था। वे माक्र्सवादी-समाजवादी सिद्धान्तकारों के खिलाफ नहीं थे, लेकिन उनकी सीमायें बखूबी जानते थे। इसलिए तद्युगीन अधिसंख्य कवि जन-सरोकार के कवि हैं। उनका सामाजिक जुड़ाव अथवा लगाव गहन है और ज़मीनी है। 
जन-मन के आंदोलनकारी नेता और किसानों के हितचिंतक स्वामी सहजानंद सरस्वती के विचार स्तुत्य हैं-‘‘मुल्क में जितने भी प्रगतिशील विचार वाले या वामपंथी हैं सबों की अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना गीत है। कम से कम जितनी पार्टियों में ये लोग बँटे हैं उतने रास्ते तो इनके हैं ही। आपस में इनका काम करना वैसा ही है, जैसा बाघ और बकरी का। एक-दूसरे की बातें करने में भी इन्हें नफरत है। दक्षिणपंथी नेताओं की सबसे बड़ी होशियारी यही रही कि उन्होंने वामपंथी में ‘तीन कनौजिया तेरह चूल्हा’ कर दिया और एक-दसरे को हजार कोस दूर रखा। हमारी पार्टी सही, हमारी पाॅलिसी दुरुस्त और हमारी पाॅलिटिकल थीसिस खरी है, इसी धुन में हर पार्टी वाला मस्त है।’’
आज 21वीं सदी के दो दशक बीत चुके हैं। पर स्वामी सहजानंद ने प्रगतिशील काॅमरेडों को लेकर जो सटीक मूल्यांकन स्वतंत्रता-पूर्व भारत में किया था, वह आज भी सोलह आना सच है। बकौल किसान आंदोलन के अगुवा रहे सहजानंद सरस्वती-वामपंथी लोग तो बराबर चिल्लाते थें कि श्रमजीवियों को राजनीतिक चेतना दी जाय, वे तैयार किये जाएँ। लेकिन ऐसा सुनकर ये नेता ही छाती पीटते थे कि ऐसा होने पर सब चैपट होगा! फिर वही नेता आज लोगों को कैसे तैयार करेंगे? और क्या यह तैयारी बात ही बात में हो जाएगी? उसके लिए तो युग लगेंगे। तब क्या शोषक-गण हाथ-पर-हाथ धरे बैठे रहेंगे? क्या वे अपनी तैयारी न करेंगे और बाजी मार न ले जाएँगे? अगर वे रोके जाएँगे तो किस तरह, यह बात बताने के लिए क्या ये लीडर तैयार हैं?” जनता जानती है कि नेताओं की भाषा से जीवन की वैतरणी से पार लगना मुश्किल है। उनकी स्थिति खुद न तीन में न तेरह की होती है। नेतागिरी आज ‘उपेक्षा’ और ‘सहूलियत’ का प्रबंधशास्त्र है। वह जनता की उपेक्षा करने की शर्त पर अपनी सहुलियतें तय करता है। जहाँ तक आजादी के दौरान के प्रगतिशील-वामपंथी राजनीतिज्ञों के मंसूबे की बात है, तो  अकबर इलाहाबादी बहुत खूब फरमाते हैं-

“क़ौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ,
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ।“

भारतीय जनता इतनी बार छली गई है कि वह अपनी परछाई की परछन भी सोच-समझकर करती है। इस मामले में उसके निर्णय बेहद सतर्क और विवेकशील होते हैं। कहा भी जाता है कि जनता अपने फैसले में बहुद क्रूर होती है। दरअसल, प्रगतिवादी काव्यधारा के कविगण को भी ज़मीनी सचाई पता था। किसानों-मजदूरों की संगठित एका के असल ताकत का भान था।‘‘प्रगतिशील कवियों में शुमार आरसी प्रसाद सिंह की कविता ‘जब पानी सर से बहता है’ का हुंकार शायद ऐसे ही मौकों के लिए हो, अपने को चरितार्थ करती मालूम देती हैं-

“तब कौन मौन हो रहता है?
जब पानी सर से बहता है।

चुप रहना नहीं सुहाता है,
कुछ कहना ही पड़ जाता है।
व्यंग्यों के चुभते बाणों को
कब तक कोई भी सहता है?
जब पानी सर से बहता है।

अपना हम जिन्हें समझते हैं।
जब वही मदांध उलझते हैं,
फिर तो कहना पड़ जाता ही,
जो बात नहीं यों कहता है।
जब पानी सर से बहता है।

दुख कौन हमारा बाँटेगा
हर कोई उल्टे डाँटेगा।
अनचाहा संग निभाने में
किसका न मनोरथ ढहता है?
जब पानी सर से बहता है।“

1936-37 के चुनाव ने तो स्पष्ट ही बता दिया कि ग्रामीण जनता के पास अपरंपार शक्ति है, जो किसी को झुका सकती है। इसी भाव ने, जनशक्ति के इसी ज्ञान ने किसान्-आंदोलन को जन्म दिया। जनांदोलन का मूल तो गाँवों में ही था, उसके मूलस्तंभ किसान ही थे। असहयोग-आंदोलन का कार्यक्रम प्रधनतः उन्हीं को ध्यान में रखकर तैयार हुआ था। अधिसंख्य वही उस आंदोलन में खिंचे भी। फलतः अपनी अजेय शक्ति का ज्ञान विशेष रूप से उन्हीं को हुआ। उसने सोचा कि अगर हम अपरा बलशाली साम्राज्य शाही को पछाड़ सकते हैं, तो इन जमींदार-मालगुजारों और सूदखोरों की क्या हस्ती? ये तो उसी साम्राज्यशाही के बनाए हुए हैं। जब हमने हाथी या सिंह को पछाड़ लिया, तो बिल्ली या चुहिया की क्या बिसात? यदि संगठित जनांदोलन ने सरकार को मात किया तो संगठित किसान-आंदोलन ही जमींदार को करारा पाठ पढ़ाएगा, यह निष्कर्ष किसानों और उनके सेवकों ने स्वभावतः निकाला।’’
प्रगतिवादी कविताओं को महसूसते हुए विद्यार्थीगण इन बातों को कदापि न भूलें कि कविता प्रत्यक्ष-परोक्ष बहुत कुछ कर सकती हैं। ‘जेनुइन’ कविता दरबारी नहीं होती हैं या कि किसी की खुशामद अथवा अपने ‘स्व’ की हत्या कर स्तुतिगान में नहीं लिखी जाती हैं। वह अपने होने को हो कर साबित करती हैं। जनता के पास कुछ न हो, सिर्फ जनगीत हो, तो वह अपने तईं बड़ा पराक्रम कर दिखाती हैं। कविता की ताकत को समझने की बजाय ‘गिरगिट की पूँछ’ बनते कवि भले न समझें, लेकिन जनता के ज़बान का कवि इन बातों को बखूबी जानता और पहचानता है। उन दिनों परिस्थितियाँ भी इतनी विकट थी कि किसानों-मजदूरों में यह चेतस-भाव जगना लाजिमी था। प्रगतिशील कवि के रूप में जाने जाने वाले राष्ट्रकवि दिनकर ने शोषित-वंचित इस बहुसंख्यक वर्ग की चेतना और खोई हुई पहचान की पुनःवापसी के लिए ‘आग की भीख’ शीर्षक से एक टटके भाव-संवेदनाओं की कविता को जनता के बीच प्रकट किया-

“धुँधली हुई दिशाएँ, छाने लगा कुहासा
कुचली हुई शिखा से आने लगा धुआँसा
कोई मुझे बता दे, क्या आज हो रहा है
मुंह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा है
दाता पुकार मेरी, संदीप्ति को जिला दे
बुझती हुई शिखा को संजीवनी पिला दे
प्यारे स्वदेश के हित अँगार माँगता हूँ
चढ़ती जवानियों का शृंगार मांगता हूँ

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता, किश्ती किधर चली है
मँझदार है, भँवर है या पास है किनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा?
आकाश पर अनल से लिख दे अदृष्ट मेरा
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा
तमवेधिनी किरण का संधान माँगता हूँ
ध्रुव की कठिन घड़ी में, पहचान माँगता हूँ।“

Saturday 25 April 2020

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 21

Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

प्रगतिवादी आन्दोलन और प्रगतिवाद के कवियों ने देखने की दृष्टि दी। बीते कुछ दशकों में भारत की जो चतुर्दिक वृद्धि हुई और भारत प्रगतिशील सोपानों पर निरंतर आगे बढ़ पाया है, तो इसमें प्रगतिशील कवियों द्वारा निर्मित सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का योग कम नहीं है। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ वाले लिहाज से कहें तो आजाद भारत के नक़्शे पर गंणतांत्रिक राष्ट्र का उदय एवं प्रतिष्ठा इसका स्वमेव सूचक है। उन दिनों पूरा भारत आधुनिकता-बोध के नवयुग में प्रवेश कर रहा था, आधुनिकता-बोध के बरास्ते अपनी कहानी खुद लिखने हेतु भारत की बहुसंख्यक जनता जिसमें अधिसंख्य स्त्री-पुरुष, वर्ग-गोत्र, अस्मिता-पहचान, भाषा-सम्प्रदाय इत्यादि शामिल थे; के साथ अपनी मुकम्मल उपस्थिति दर्ज कर रहे थी। बहुसंख्यक समाज के भीतर जिस नवचेतना का प्रस्फुटन हुआ था उसकी दिशा कौन तय कर रहा था, तो यहाँ प्रगतिवादी कवियों के प्रश्न अनुत्तरित-सा प्रत्यक्ष आ खड़े होते हैं। बालकृष्ण राय की काव्य-पंक्ति देखें-

“नदी को रास्‍ता किसने दिखाया?
सिखाया था उसे किसने
कि अपनी भावना के वेग को
उन्‍मुक्‍त बहने दे?
कि वह अपने लिए
खुद खोज लेगी
सिन्धु की गम्भीरता
स्‍वच्‍छन्द बहकर?”

इस कविता के आखिर में कवि पुनश्च जवाब के लिए प्रतीक्षातुर होता है और प्रश्न टाँकता है-

“किधर है सत्‍य?
मन के वेग ने
परिवेश को अपनी सबलता से झुकाकर
रास्‍ता अपना निकाला था,
कि मन के वेग को बहना पडा था बेबस
जिधर परिवेश ने झुककर
स्‍वयं ही राह दे दी थी?
किधर है सत्‍य?

क्‍या आप इसका जबाब देंगे?”

दरअसल, भारत की सामासिक संस्कृति की परम्परा यहीं चरितार्थ होती है। भारत का समाज ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ अद्भुत तरीके से करता है। हर साल जिस रावण का वध इस देश में रामलीला के तहत किया जाता है उसके पांडित्य और ज्ञान का लोहा आज भी समाज मानता है। यह भारतीय जनसमाज की प्रकृति है, लोकायत की अक्षुण्ण-धारा है कि इस राष्ट्र में पाप से घृणा की जाती है पापी से नहीं। आधुनिक चेतना में भारतीय ज्ञान-प्रणाली में मिथकों, प्रतीकों, परम्पराओं, प्राचीन ग्रंथों, लोक-सुभाषितों, लोक-साहित्य के बरअक्स विकसित होती है जो भारत के हर एक व्यक्ति को आत्मनिर्भर और आत्मचेतस बनने को प्रेरित करती है; उनको अपने हक-हकूक, अधिकार-प्रतिष्ठा हेतु संघर्षशील बने रहने की ताकीद करती है; उनको सदैव प्रोत्साहित करती है। 
खेत-खलिहान और विभिन्न श्रम के पेशे से जुड़े किसान-मजदूर-व्यापरी राष्ट्रनिर्माण की इसी चेतना के साथ कर्मरत दिखाई देते हैं; यह और बात है कि आजाद भारत के सत्ता पर काबिज जातियाँ अंततः जातिवादी ही थीं जो अपनी मूलप्रवृत्ति में भेदभाव वाली विषमतामूलक समाज को ही बनाए रखना चाहती थी। वह सबको शिक्षित करने और आगे बढ़ने का मौका देने के फिराक में नहीं थी; चूँकि भारत में लिखित संविधान और भारतीय दंड संहिता लागू कर दी गई थी; जो अंततः मिशनरी जातियों की जातीय मानसिकता को 'फेल' करने का मुख्य औजार साबित हुई। कहना न होगा कि अंतर्विरोधों से निपटना भारत के लोक-मानस को बखूबी आता है। वह जाति-विशेष की केन्द्रिीयता को शनै-शनै देशज आधुनिकता और भौतिकवादी आँच में पकाती है, उनका शमन करती है। दरअसल यह आधुनिकता बड़ी निक काम करती है। वास्तव में ‘‘जिसे हम आधुनिकता कहते हैं वह एक प्रक्रिया का नाम है। यह प्रक्रिया अंधविश्वास से बाहर निकलने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया नैतिकता में उदारता बरतने की प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया बुद्धिवादी बनने की प्रक्रिया है। आधुनिक वह है जो मनुष्य की ऊँचाई, उसकी जाति या गोत्र से नहीं; बल्कि उसके कर्म से नापता है। आधुनिक वह है जो मनुष्य-मनुष्य को समान समझे।’’ 
इस तरीके से हम देखते हैं कि प्रगतिशील काव्य-धारा ने ‘दैव-विधान’ को दंडित किया और ‘दैवीय न्याय’ के अंधविश्वास को खारिज कर दिया। इसके उलट सांविधानिक अधिकार-प्राप्त लोगों ने सामाजिक समता की अनन्तर इकाइयों को महत्त्व देना शुरू किया। लेकिन यह भी सत्य है कि छद्मवेशधारी प्रगतिशील उच्चारकों की दाल नहीं गली और उन्हें भारतीय जनसमाज ने कवि के रूप में स्वीकार करने से इंकार कर दिया जबकि लोक-जबान के कवि त्रिलोचन को लोक-मानस ने हाथोंहाथ लिया और उन्हें उच्च आसन पर प्रतिष्ठित किया। कवि त्रिलोचल की कविता की धार देखते बनती है-

“आज जो गाजते हैं
कल गाज लें
क्या बरसों वह गाजते जाएंगे

शक्ति की ऎंठ में
लूट के माल को
लुटक गर्व से साजते जाएंगे

जो लुटे हैं
वह भीतरी हाय को
भीतर-भीतर मांजते जाएंगे

क्या इन लूटकों
और लुटे हुओं को
दिन-रात ये गाजते जाएंगे।“

विद्यार्थीगण को यहाँ यह देखना आवश्यक होगा कि प्रगतिशील कवि हू-हा के कवि नहीं हैं और न ही वे मनुष्य को जबरन महान और उदात, वीर और तेजस्वी दिखाने पर तुले दिखाई देते हैं। प्रगतिशील काव्यधारा के लेखन में जुटे लोकमना कवियों ने यह स्वीकार किया कि-‘‘भारतीय लोक शक्तिमना है। उसमें तमाम तरह की मानुषिक प्रवृत्तियों का समावेश है। साथ ही भारतीय संस्कृति की प्रबल ग्रहणशीलता और प्रवाहमयता विद्यमान दिखाई देती है। वे सामाजिक धुरी पर बाहरी-भीतरी खाई को लगातार पाटने में जुटे दिखाई देते हैं; ताकि संवाद का पुल बन सके न कि युद्ध का अखाड़ा। उन्होंने उन चीजों की पहचान की जो बहुसंख्यक समाज की त्रासदी के मूल में रहा है। जैसे-रहस्य, कर्मकाण्ड और व्यवहारच्यूत मंत्र। कविता के सौन्दर्यशास्त्र को लेकर प्रगतिशील कवियों की समझ और ज्ञान स्पष्ट थी। उनका मानना था कि-‘‘कविता में नैतिक औचित्य और कलात्मक-औचित्य दोनों की बात होनी आवश्यक है। इससे रचनात्मक जनतंत्र का निर्माण होता है। साथ ही रचनाकार की अपनी प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता सिद्ध होती है।’’ जनकवि नागार्जुन की कविता ‘मैं तुम्हें अपना चुंबन दूँगा’ ऐसी ही जनपक्षधर और प्रतिबद्ध कवि की प्रगतिशील घोषणापत्र है जिससे मुमकिन तौर पर याद रखा जाना चाहिए-

“मैं तुम्हीं को अपनी शेष आस्था अर्पित करूंगा
मैं तुम्हारे लिए ही जिऊँगा,मरूँगा

मैं तुम्हारे ही इर्द गिर्द रहना चाहूँगा
मैं तुम्हारे ही प्रति अपनी वफादारी निबाहूँगा
आओ, खेत-मजदूर और भूदास किसान
आओ, खदान-श्रमिक और फैक्ट्री वर्कर नौजवान
आओ, कैंपस के छात्र और फैकल्टियों के नवीन-प्रवीण प्राध्यापक

हाँ,हाँ,तुम्हारे ही अंदर तैयार हो रहे हैं
आगामी युगों के लिबरेटर।“

एक टीचर के नोट्स में काव्य और कविताएँ : 20


Online Notes : 2nd Semester, MA in Hindi)
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(पिछले से आगे...)

प्रगतिशील काव्य-धारा सामाजिक उत्थान और वैयक्तिक उन्नयन का साधन है। उसका चरम लक्ष्य है-समता और सम्पन्नता। तर्क एवं विज्ञान आधारित तरीके से बराबरी के सिद्धांत वाले जनतंत्र की स्थापना प्रगतिशील कवियों की मुख्य प्रवृत्ति रही है। कई लोगों को प्रगति के साथ ‘वाद’ जुड़े होने से अर्थ को समझने में कठिनाई होती हैं। ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में लिखा गया है-‘‘जीवन के कई क्षेत्रों में जब एक साथ परिवर्तन के लिए पुकार सुनाई पड़ती है तब परिवर्तन एक ‘वाद’ का व्यापक रूप धारण करता है और वह बहुतों के लिए सब क्षेत्रों में स्वतः एक चरम साध्य बन जाता है। ‘क्रांति’ के नाम से परिवर्तन की प्रबल कामना हमारे हिंदी काव्य-क्षेत्र में प्रलय की पूरी पदावली के साथ व्यक्त की गई। इस कामना के साथ कहीं-कहीं प्राचीन के स्थान पर नवीन के दर्शन की उत्कंठा प्रकट हुई।"
यह उत्कंठा विमुक्ति का पाथेय है। यह उन बहुसंख्यक लोगों के हक-हकूक और सामाजिक पुनरुत्थान की बात करती हैं जिन्हें कुछ सामंती और वर्चस्ववादी जातियों ने जानबूझकर मुख्यधारा की केन्द्रीयता से बाहर रखा है। देशज साहित्य में इस बहुसंख्यक वर्ग के रचनाकारों को या तो जगह नहीं दी गई अथवा उनके प्रति उपेक्षा का भाव बरता गया है। ऐसे में जो फार्मुलाबद्ध ‘सत्य’ जाहिर-प्रकट रूप से हमें दिखाई पड़ता है वह दरअसल शोषक-शासक वर्ग का दरबारी साहित्य है जिसकी मनमानी व्याख्याएँ और आख्यान लिखित रूप में हमारे सामने मौजूद है। इस दृष्टि से प्रगतिवादी काव्य-धारा सदियों से वंचित तथा प्रवंचना के शिकार समाज की अकथ कहानी का स्वाभाविक परिणाम है, प्रतिफल है। रेमण्ड विलियम्स ‘साहित्यिक वर्चस्व’ की ऐसी परिपाटी की पड़ताल करते हुए अपनी बात रखते हैं-‘‘लोक-परम्परा को हिकारत की नज़र से देखा जाता है। महान परम्परा को कुछ लोग हथिया लेते हैं और इन दोनों के बीच के रिक्त स्थान में वे सट्टेबाज घुस आते हैं जो विरासत-शून्यता का फायदा उठाने में माहिर होते हैं; क्योंकि खुद उनकी जड़े कहीं नहीं होतीं। इस तरह हमारे सांस्कृतिक संगठन का नियंत्रण मुख्यतः ऐसे लोगों के हाथों में चला गया है जो और कोई परिभाषा जानते ही नहीं।’’ प्रगतिशील काव्यधारा के कवि गोपाल सिंह नेपाली जब जनता को इस तरह की विषमता और भेदभाव से लड़ने-भिड़ने के लिए पुकारते हैं, तो उनके कहे में अधुनातन सामाजिक-राजनीतिक चेतना का अकुंठ स्वर स्पष्ट सुनाई पड़ता है-

“कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले
क्रांति को सफल बना नसीब का न नाम ले

भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले

त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो

न्याय हो तो आरपार एक ही लकीर हो
वर्ग की तनातनी न मानती है चांदनी

चांदनी लिये चला तो घूम हर मुकाम ले
त्याग का न दाम ले
दे बदल नसीब तो गरीब का सलाम ले”

उपर्युक्त कविता में बदलाव की बात कवि पूरी ताकत से करता है और वह पलायनवादी प्रवृत्ति से बचने की सलाह देता है। प्रगतिवादी समाज का वास्तविक चित्रण करते हुए एम. एन. श्रीनिवास अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भारत में सामाजिक परिवर्तन’ में जिन बदलावों की रूपरेखा सामने रखते हैं, वह गौरतलब है-‘‘भारतीय ग्रामीण समुदाय में जो परिवर्तन हुए हैं उनके परिणामस्वरूप उसका अधिक व्यापक आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक व्यवस्थाओं से अधिक प्रभावी एकीकरण हुआ है। पिछले कुछ दशकों में, विशेषकर दूसरे महायुद्ध के बाद से, ग्रामीण संचार-साधनों में व्यापक सुधार, राष्ट्रीय से लगाकार ग्राम तक विभिन्न स्तरों पर सर्वव्यापी बालिग मताधिकार और स्वशासन का प्रारम्भ, अस्पृश्यता का उन्मूलन, देहाती जनता में शिक्षा की बढ़ी हुई लोकप्रियता और सामुदायिक विकास योजना-इन सबसे गाँव वालों की आकांक्षाएँ और धारणाएँ बदलती जा रही हैं। शिक्षा और ‘अच्छी जिन्दगी’ की इच्छा व्यापक है और बहुसंख्यक लोग अब अपने पूर्वजों की तरह रहते जाने को तैयार नहीं हैं।“
प्रगतिवादी कवियों में निराला शक्ति-सम्पन्न प्रभु-सत्ता को चुनौती देने की दिशा में लोगों को अपनी चेतना को मौलिक ढंग से जगाने और उस दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़ने के लिए कहते हैं। उन्हें लगता है कि-‘‘शक्ति की परिकल्पना अनुकरण में संभव नहीं, शक्ति को सदा मौलिक रूप में ही परिकल्पित किया जा सकता है। शताब्दियों से पराधीन देश को इससे बड़ी और सार्थक दृष्टि कोई नहीं दे सकता।...मनुष्य-मात्र के जीवन में कभी-न-कभी ऐसी मनःस्थिति आती है जब उसके मुँह से निकल पड़ता है-‘अन्याय जिधर, हैं उधर शक्ति’। पर मनुष्य का साहस और सर्जन-क्ष्मता उसका अतिक्रमण भी करती है।’’ बकौल निराला-

‘‘शक्ति की करो मौलिक कल्पना, करो पूजन
छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो रघुनन्दन।’’

भारत में प्रगतिवादी कवियों ने बहुसंख्यक समाज को शिक्षा से जोड़ा और उनको अपने वर्ग की नुमाइंदगी और नेतृत्व स्वयं करने के लिए पढ़ने-लिखने और संगठित रहने पर बल दिया। प्रगतिवादी कवियों ने सघर्ष और प्रतिरोध की अपनी लड़ाई को रचनात्मक तरीके से लड़ने हेतु प्रेरित किया उन्होंने स्पष्ट किया कि सशस्त्र क्रांति के उलट सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव की चेष्टा शोषित, पीड़ित एवं वंचित बहुसंख्यक जनसमाज की लड़ाई को अधिक जनातांत्रिक और मजबूत बनाने की पुरजोर कोशिश है। पढ़ाई-लिखाई के साथ आधुनिक ज्ञान-प्रणाली एवं तकनीकी-प्रौद्योगिकी आधारित सूचना-संस्कृति के साथ गरिमामय जिंदगी जीना आज के हर एक व्यक्ति के लिए जरूरी हो गया है। आधुनिकता इन्हीं अर्थों में वरेण्य है। तार्किक-प्रायोगिक ज्ञान आधारित शिक्षा का सर्वव्यापी प्रसार आधुनिकता की सूचना देते हैं। पोगापंथी और पुरोहितवादी समाज ने सदियों से भारतीय जनसमाज के बहुसंख्यक वर्ग को हाशिए के बाहर ही नहीं रखा था, बल्कि उनको साजिशतन बन्द समाज में तब्दील कर दिया था। 
बदलाव के नए कारक जब 20वीं शताब्दी में अपनी पैठ जमाने शुरू किए तो बन्द समाज के भीतर ‘पैक्ड’ लोगों ने अपनी स्थिति से बाहर निकल खुली हवा में साँस लेनी शुरू की और इस तरह भारत में आजादीपूर्व ही जनतांत्रिक भारत के स्वप्न का साक्षात रूप साकार होता दिखने लगा। प्रगतिवादी कवियों ने नई चेतना की अनुभूति कराई और उन्होंने भारत के बहुसंख्यक समाज में ‘वैयक्तिक गरिमा और सामाजिक अधिकार संग जीने’ की वकालत की। साथ ही अपने अभूतपूर्व प्रयास द्वारा सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की पूरी नींव रखी। इस बारे में राष्ट्रकवि रामाधारी सिंह दिनकर का कहा द्रष्टव्य है-‘‘बन्द समाज वह है जो अपने सदस्यों को भी धन या संस्कृति की दीर्घा में ऊपर उठने की खुली छूट नहीं देता जो जातिप्रथा और गोत्रवाद से पीड़ित है जो अंधविश्वासी, गतानुगतिक और संकीर्ण है। बन्द समाज मध्यकालीनता का समाज होता है। आधुनिक समाज में उन्मुक्तता होती है। इस समाज के लोग अन्य समाजों से मिलने-जुलने में नहीं घबराते।’’